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Deflationary vs Inflationary Token Model के बीच क्या अंतर है? 

Web3 प्रोजेक्ट और क्रिप्टोकरेंसी अब साथ में जुड़ चुके हैं, किसी भी प्रोजेक्ट के लिए सबसे महत्वपूर्ण है उसका टोकनोमिक्स। Web3 के डिसेंट्रलाइज़्ड नेचर के कारण यह और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि किसी भी क्रिप्टो प्रोजेक्ट का भविष्य उसकी इकोनोमी पर निर्भर करता है और प्रोजेक्ट की इकोनोमी उसके टोकन के परफॉरमेंस पर निर्भर होती है। हालांकि हर प्रोजेक्ट के Token का नेचर कैसा होगा यह इस बात पर डिपेंड करता है कि उस प्रोजेक्ट की यूटिलिटी क्या है?

इसी कारण से कुछ टोकन नेचर में ही Deflationary होता हैं, जबकि कुछ को Inflationary नेचर का बनाया जाता है। आज हम इस ब्लॉग में इसी पर चर्चा करेंगे की Deflationary और Inflationary Token Model में क्या अंतर होता है और यह कैसे किसी प्रोजेक्ट के टोकन की वैल्यू को प्रभावित करते हैं।              

टोकनोमिक्स क्यों ज़रूरी है?

Tokenomics, किसी क्रिप्टो प्रोजेक्ट के टोकन और उसकी इकोनॉमिक्स के बारे में बात करता है। यह किसी क्रिप्टोकरेंसी की सप्लाई, डिस्ट्रीब्यूशन और यूटिलिटी को डिफाइन करता है। यह एक तरह का ब्लूप्रिंट है, जो बताता है कि कोई टोकन कैसे बनाया जाएगा, डिस्ट्रीब्यूट किया जाएगा और इस्तेमाल किया जाएगा। यह समझना कि टोकनोमिक्स कैसे काम करता है, इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह सीधे तौर पर क्रिप्टो की वैल्यू, डिमांड और इकोसिस्टम की स्टेबिलिटी को प्रभावित करता है।

उदाहरण के लिए, Bitcoin की सीमित 21 मिलियन सप्लाई इसे एक स्कार्स एसेट बनाती है, जबकि Tether जैसी स्टेबलकॉइन्स की सप्लाई मार्केट डिमांड के आधार पर बढ़ती रहती है। टोकनोमिक्स न केवल इनवेस्टर्स को वैल्यूएशन समझने में मदद करता है, बल्कि डेवलपर्स को यह तय करने में भी सहायता देता है कि प्रोजेक्ट की फंडिंग और गवर्नेंस कैसे होगी। Tokenomics के दो मुख्य मॉडल्स हैं, Deflationary और Inflationary, आइए पहले Deflationary Token Model को समझते हैं।

Deflationary Token Model क्या होता है?

जब किसी प्रोजेक्ट के टोकन की सप्लाई को समय के साथ कम किया जाता है या इसे एक फिक्स्ड रखा जाता है, तो इसे डिफ्लेशनरी टोकन मॉडल कहते हैं। इसका उद्देश्य टोकन की स्कार्सिटी बढ़ाना और उसकी वैल्यू को लॉन्ग टर्म में सपोर्ट करना होता है। इस मॉडल में आमतौर पर टोकन्स को बर्न किया जाता है यानी उन्हें परमानेंटली सर्कुलेशन से हटा दिया जाता है, जो सप्लाई को समय के साथ कम करता है।

Deflationary Token की प्रमुख विशेषताएं:

फिक्स्ड सप्लाई: टोकन की कुल संख्या पहले से तय होती है, जैसे Bitcoin की 21 मिलियन कॉइन्स है। इससे स्कार्सिटी बढ़ती है, जो डिमांड को बूस्ट कर सकती है।

टोकन बर्निंग: ट्रांज़ैक्शन फीस या स्पेसिफिक मैकेनिज़्म्स के ज़रिए टोकन्स को सर्कुलेशन से बाहर किया जाता है। उदाहरण के लिए, Ethereum का EIP1559 अपडेट हर ट्रांज़ैक्शन में कुछ ETH बर्न करता है।

रिवॉर्ड रिडक्शन: कुछ प्रोजेक्ट्स समय के साथ स्टेकिंग या माइनिंग रिवॉर्ड्स को कम करते हैं, जैसे Bitcoin Halving इवेंट, जो हर चार साल में ब्लॉक रिवॉर्ड्स को आधा करता है।

डिफ्लेशनरी मॉडल का यह डिज़ाइन टोकन की वैल्यू को कैसे प्रभावित करता है? आइए इसे समझते हैं।

Deflationary Token Model का क्रिप्टो की वैल्यू पर प्रभाव

डिफ्लेशनरी मॉडल किसी टोकन को एक ऐसा एसेट बनाता है, जिसकी सप्लाई समय के साथ कम होती चली जाती है। क्योंकि अनलिमिटेड सप्लाई के कारण कॉइन की मार्केट वैल्यू नहीं बढ़ पाती और वह धीरे-धीरे डेड प्रोजेक्ट में बदल जाता है, इसका एक बड़ा उदाहरण Shiba Inu है जिसकी अनलिमिटेड सप्लाई ने इसके मार्केट प्राइस पर बहुत ज्यादा असर डाला है। जैसे-जैसे टोकन की सप्लाई कम होती है और इसकी यूटिलिटी बढ़ने के कारण डिमांड बढ़ती है, टोकन की कीमत में उछाल देखने को मिल सकता है। Deflationary Token Model के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव इस प्रकार हैं:

वैल्यू एप्रिसिएशन: सीमित सप्लाई की वजह से, डिमांड बढ़ने पर टोकन की कीमत बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए, Bitcoin की कीमत 2009 में कुछ सेंट्स से बढ़कर 2025 में 1 लाख डॉलर के भी अधिक पहुंची गयी है।

इनवेस्टर कॉन्फिडेंस: स्कार्सिटी की वजह से इनवेस्टर्स इसे लॉन्ग-टर्म इनवेस्टमेंट के रूप में देखते हैं। Binance Coin (BNB) इसका एक उदाहरण है, जो रेगुलर बर्निंग के ज़रिए अपनी सप्लाई को कम करता है।

होल्डिंग को प्रोत्साहन: डिफ्लेशनरी टोकन्स यूज़र्स को होल्ड करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि उनकी वैल्यू बढ़ने की संभावना रहती है। लेकिन इसका नुकसान यह है कि कम सर्कुलेशन ट्रांज़ैक्शंस को सीमित कर सकता है, जिससे यूटिलिटी कम हो सकती है।

हालांकि, डिफ्लेशनरी मॉडल हर प्रोजेक्ट के लिए फिट नहीं होता। आइए अब इन्फ्लेशनरी मॉडल को देखते हैं।

Inflationary Token Model क्या होता है?

ऐसा टोकन मॉडल जिसमें टोकन की सप्लाई समय के साथ बढ़ती है, अनलिमिटेड होती है, इन्फ्लेशनरी टोकन मॉडल कहा जाता है। इसका मकसद नेटवर्क की ग्रोथ, डेवलपमेंट और यूटिलिटी को सपोर्ट करना होता है। यह मॉडल उन प्रोजेक्ट्स के लिए ज़्यादा कॉमन है, जो डिसेंट्रलाइज्ड एप्लिकेशंस (DApps) या स्टेकिंग को बढ़ावा देना चाहते हैं।

Inflationary Token की प्रमुख विशेषताएं:

सप्लाई सिस्टम: टोकन्स को स्टेकिंग रिवॉर्ड्स, माइनिंग या ट्रेजरी फंडिंग के ज़रिए रिलीज़ किया जाता है। उदाहरण के लिए, Cardano हर Epoch में रिज़र्व से 0.3% ADA रिलीज़ करता है।

नो फिक्स्ड कैप: कुछ प्रोजेक्ट्स, जैसे Ethereum (पहले EIP1559 से पहले), अनलिमिटेड सप्लाई के साथ काम करते थे।

इन्सेंटिव्स फॉर यूज़र्स: इन्फ्लेशनरी मॉडल स्टेकर्स, वेलिडेटर्स और डेवलपर्स को रिवॉर्ड्स देकर नेटवर्क में पार्टिसिपेशन बढ़ाता है। उदाहरण के तौर पर, Polkadot स्टेकिंग के ज़रिए नए DOT टोकन्स डिस्ट्रीब्यूट करता है।

लेकिन यह मॉडल क्रिप्टो की वैल्यू को कैसे प्रभावित करता है? आइए देखते हैं।

Inflationary Token Model का क्रिप्टो की वैल्यू पर प्रभाव

इन्फ्लेशनरी मॉडल का फोकस यूटिलिटी और नेटवर्क ग्रोथ पर होता है, लेकिन यह टोकन की वैल्यू को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित कर सकता है:

यूटिलिटी को बढ़ावा: ज़्यादा टोकन्स का मतलब है ज़्यादा ट्रांज़ैक्शंस और DApps की ग्रोथ। उदाहरण के लिए, Cardano की स्टेकिंग रिवॉर्ड्स ने इसके नेटवर्क को डिसेंट्रलाइज्ड और एक्टिव बनाए रखा है।

वैल्यू डाइल्यूशन: अगर सप्लाई बहुत तेज़ी से बढ़ती है, तो टोकन की वैल्यू कम हो सकती है। Dogecoin इसका एक उदाहरण है, जहां अनलिमिटेड सप्लाई ने इसकी कीमत को अपेक्षाकृत कम रखा है।

मार्केट डायनामिक्स: इन्फ्लेशनरी टोकन्स की कीमत मार्केट डिमांड पर ज़्यादा निर्भर करती है। अगर डिमांड सप्लाई को बैलेंस नहीं करती, तो कीमत स्टेबल या कम हो सकती है।

इन्फ्लेशनरी मॉडल नेटवर्क की ग्रोथ के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन Deflationary और Inflationary Token Model में क्या अंतर है? आइए इन दोनों की तुलना करते हैं।

Deflationary vs Inflationary Token Model

Deflationary और Inflationary Token Model के बीच का अंतर उनकी डिज़ाइन फिलॉसफी और गोल्स में है। आइये इन दोनों के बीच के मुख्य अंतर को समझते हैं:

सप्लाई डायनामिक्स:

  • डिफ्लेशनरी: सीमित या कम होती सप्लाई। उदाहरण: Bitcoin (21 मिलियन कैप)।
  • इन्फ्लेशनरी: बढ़ती या अनलिमिटेड सप्लाई। उदाहरण: Dogecoin (कोई कैप नहीं)।

वैल्यू प्रोपोज़िशन:

  •  डिफ्लेशनरी: स्कार्सिटी के ज़रिए वैल्यू बढ़ाने पर फोकस। Bitcoin की कीमत इसका उदाहरण है।
  •  इन्फ्लेशनरी: यूटिलिटी और नेटवर्क ग्रोथ पर फोकस। Cardano की स्टेकिंग इसका उदाहरण है।

यूज़र बिहेवियर:

  • डिफ्लेशनरी: होल्डिंग को प्रोत्साहित करता है। BNB होल्डर अक्सर कीमत बढ़ने की उम्मीद में होल्ड करते हैं।
  • इन्फ्लेशनरी: एक्टिव पार्टिसिपेशन (जैसे स्टेकिंग, ट्रांज़ैक्शंस) को बढ़ावा देता है। Polkadot के स्टेकर्स इसका उदाहरण हैं।

लॉन्गटर्म इम्पैक्ट:

  • डिफ्लेशनरी: लॉन्गटर्म वैल्यू ग्रोथ की संभावना, लेकिन यूटिलिटी सीमित हो सकती है।
  • इन्फ्लेशनरी: नेटवर्क ग्रोथ को सपोर्ट करता है, लेकिन वैल्यू डाइल्यूशन का रिस्क रहता है।

अब प्रश्न उठता है की क्या कोई ऐसा भी मॉडल है जो इन दोनों मॉडल को साथ-साथ में काम में लेता हो? आइए जानते हैं।

Hybrid Token Models

कुछ प्रोजेक्ट्स Deflationary और Inflationary Token Model के बीच का बैलेंस ढूंढते हैं, जिन्हें Hybrid Token Model कहा जाता है। ये मॉडल्स स्कार्सिटी और यूटिलिटी दोनों को सपोर्ट करने की कोशिश करते हैं।

Hybrid Token Model के कुछ इम्पोर्टेन्ट उदाहरण इस प्रकार है:

  • Ethereum: EIP1559 अपडेट के बाद, Ethereum ने कुछ ETH को बर्न करना शुरू किया, जिससे यह डिफ्लेशनरी हो गया। लेकिन स्टेकिंग रिवॉर्ड्स के ज़रिए नई सप्लाई भी जनरेट होती है, जो इसे हाइब्रिड बनाता है।
  • Cardano: Cardano की 45 बिलियन ADA की फिक्स्ड सप्लाई इसे डिफ्लेशनरी बनाती है, लेकिन रिज़र्व से धीरे-धीरे रिलीज़ होने वाले टोकन्स इसे शॉर्ट-टर्म में इन्फ्लेशनरी बनाते हैं।
  • Solana: Solana में शुरुआती इन्फ्लेशन रेट 8% थी, जो धीरे-धीरे कम होकर 1.5% तक पहुंचेगी और ट्रांज़ैक्शन फीस बर्निंग इसे डिफ्लेशनरी बनाती है।

Hybrid Token Model प्रोजेक्ट्स को फ्लेक्सिबिलिटी देते हैं, लेकिन सही बैलेंस ढूंढना चुनौतीपूर्ण होता है। तो, इनमें से कौन-सा मॉडल आपके लिए बेहतर है?

क्रिप्टोकरेंसी की दुनिया में टोकनोमिक्स एक गेमचेंजर है, जो डिफ्लेशनरी और इन्फ्लेशनरी मॉडल्स के ज़रिए प्रोजेक्ट्स की दिशा तय करता है। डिफ्लेशनरी मॉडल्स स्कार्सिटी और वैल्यू ग्रोथ को बढ़ावा देते हैं, जबकि इन्फ्लेशनरी मॉडल्स नेटवर्क की यूटिलिटी और ग्रोथ को सपोर्ट करते हैं। हाइब्रिड मॉडल्स इन दोनों के बीच का बैलेंस लाते हैं, लेकिन सही मॉडल का चयन प्रोजेक्ट के गोल्स और मार्केट डायनामिक्स पर निर्भर करता है।

अगर आप एक इनवेस्टर हैं, तो अपने रिस्क टॉलरेंस और गोल्स के आधार पर टोकन मॉडल्स को एनालाइज़ करें और अपनी रिसर्च के आधार पर किसी भी तरह के निवेश का निर्णय लें।  

Ronak GhatiyaRonak Ghatiya
Ronak Ghatiya
Hindi Content Writer
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